भारत के अधिकाँश शास्त्रीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति कहाँ से हुई है?

भारत के अधिकाँश शास्त्रीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति नाट्य शास्त्र से हुई है। भारत के अधिकांश शास्त्रीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति वास्तव में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित सिद्धांतों से मानी जाती है। नाट्यशास्त्र ने ही भारतनाट्यम, कथक, ओडिसी, कुचिपुड़ी, मणिपुरी, कथकली, मोहिनीयट्टम और सत्रिया जैसे प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों की सौंदर्य-दृष्टि, तकनीक और व्याकरण को मूल आधार प्रदान किया है।

भारत के अधिकाँश शास्त्रीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति नाट्य शास्त्र से हुई है।

नाट्यशास्त्र एक प्राचीन संस्कृत आचारग्रंथ है जिसका रचनाकाल लगभग 200 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के बीच माना जाता है और इसके कर्ता के रूप में ऋषि भरतमुनि का उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ संगीत, नृत्य, रंगमंच, अभिनय, वेशभूषा, रंगमंच-रचना आदि सभी प्रदर्शन कलाओं के लिए प्रथम सुव्यवस्थित शास्त्र माना जाता है।

नाट्यशास्त्र में ‘रस’, ‘भाव’, ‘अभिनय’, ‘करणा’, ‘चाल’, ‘अंग’, ‘उपांग’, ‘नृत्य–नृत्य–नाट्य’ की अवधारणाएँ विस्तार से दी गई हैं जिन्हें आज सभी शास्त्रीय नृत्य रूप अपनी-अपनी शैली में अपनाते हैं। इसीलिए इसे भारतीय नृत्य, नाटक और संगीत का मूल या “पंचम वेद” जैसा स्थान दिया जाता है।

संगीत नाटक अकादमी ने भारत की आठ शास्त्रीय नृत्य शैलियों को मान्यता दी है – भारतनाट्यम, कथक, कथकली, मणिपुरी, मोहिनीयट्टम, कुचिपुड़ी, ओडिसी और सत्रिया। इन सभी की सैद्धांतिक जड़ें नाट्यशास्त्र में उल्लिखित नियमों, मुद्राओं, नृत्यभंगिमाओं और अभिनय सिद्धांतों में निहित हैं।
  • भारतनाट्यम की ‘करणाएँ’, हस्तमुद्राएँ और नृत्य–नृत्य–नाट्य की त्रयी नाट्यशास्त्र के विवरणों से ही विकसित मानी जाती हैं।
  • ओडिसी के लिए नाट्यशास्त्र में उल्लिखित ‘ओध्रनृत्य’ का संदर्भ एक महत्वपूर्ण प्राचीन प्रमाण माना जाता है।
  • कथक, कथकली, कुचिपुड़ी तथा अन्य शैलियाँ भी अपने अभिनय (अभिनय), रस–भाव और नृत्य संरचना में नाट्यशास्त्रीय परंपरा पर आधारित हैं।
नाट्यशास्त्र में वर्णित रस-सिद्धांत – विशेष रूप से शृंगार, करुण, वीर, रौद्र, अद्भुत आदि नवरस – सभी शास्त्रीय नृत्य शैलियों की आत्मा माने जाते हैं। प्रत्येक नृत्य-रूप अपनी चाल, गति, हस्तमुद्रा, नेत्राभिनय और देह-भाषा के माध्यम से इन्हीं रसों को प्रकट करने का प्रयास करता है, चाहे वह कथक की घूमरी हो या कथकली का वीर रस से भरपूर अभिनय।

अभिनय के चार रूप – अंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्त्विक भी नाट्यशास्त्र की ही देन हैं, जिन्हें सभी शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ अपने-अपने मंचीय विधान में अपनाती हैं। इस प्रकार नृत्य केवल देहगत लय नहीं, बल्कि भाव, कथा और दर्शन की सम्मिलित प्रस्तुति बन जाता है।

नाट्यशास्त्र नृत्य को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि धर्म, नीति और आत्मोन्नति का माध्यम मानता है, इसी कारण अधिकांश शास्त्रीय नृत्य रूप मंदिरों, देवालयों और धार्मिक उत्सवों से जुड़े रहे हैं। भारतनाट्यम के देवदासी परंपरा से लेकर ओडिसी की महारी और गोतीपूआ परंपरा, तथा सत्रिया के असमिया वैष्णव मठों तक – इन सभी में नृत्य को ईश्वर-आराधना की साधना के रूप में देखा गया।

सदियों के सामाजिक–राजनीतिक परिवर्तनों के बीच भी नाट्यशास्त्र में निहित सिद्धांतों ने इन नृत्य रूपों को एक साझा शास्त्रीय आधार और दार्शनिक एकता प्रदान की है। यही कारण है कि कहा जाता है – भारत के अधिकांश शास्त्रीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति और संरचना की जड़ नाट्यशास्त्र के अमर ज्ञान-स्रोत से ही सिंचित होती रही है।

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