लावणी, पोवाड़ा, कोली, वाघ्या मुरली और धनगारी गाजा
महाराष्ट्र के लोकनृत्य है।

लावणी
- लावणी महाराष्ट्र की अत्यंत लोकप्रिय लोकनृत्य शैली है। यह तेज लय, भावपूर्ण गायन और सशक्त अभिनय के अनोखे संगम के लिए जानी जाती है। यह नृत्य प्रायः ढोलकी की थाप पर प्रस्तुत किया जाता है और मराठी लोक रंगमंच तथा तमाशा परंपरा से गहराई से जुड़ा हुआ है।
- लावणी की शुरुआत लगभग सोलहवीं शताब्दी के आसपास मानी जाती है।
- “लावणी” शब्द को मराठी के “लावण्य” या “लवण” से जोड़ा जाता है जिसका आशय सौंदर्य और आकर्षण से है जो इस नृत्य की मूल पहचान है।
- लावणी में प्रायः महिला कलाकार नौ-गज (नौवारी) साड़ी विशेष ढंग से पहनती हैं।
पोवाड़ा
- पोवाड़ा नृत्य महाराष्ट्र की समृद्ध लोकपरंपरा का एक जीवंत और ऊर्जावान रूप है जो विशेष रूप से मराठा इतिहास, वीर गाथाओं और युद्धकथाओं से प्रेरित माना जाता है।
- यह नृत्य छत्रपति शिवाजी महाराज और मराठा साम्राज्य के योद्धाओं की बहादुरी, त्याग और गौरव को जन-जन तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम रहा है।
- पोवाड़ा केवल एक नृत्य ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र के गौरवशाली अतीत की भावनाओं को लोकधुनों और जोशीली प्रस्तुति के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाला सांस्कृतिक उत्सव है।
- पोवाड़ा प्रस्तुत करने वाले प्रमुख गायक या कवि को “शाहिर” कहा जाता है जो पूरी प्रस्तुति का नेतृत्व करता है।
- शाहिर प्रायः डफ, ढोलक या अन्य ताल वाद्य बजाते हुए जोशीले अंदाज में गाथा सुनाता है जबकि पीछे खड़े दलगत कलाकार कोरस के रूप में “हुंकार”, ताल और जयघोष से वातावरण को ऊर्जावान बनाते हैं।
- पोवाड़ा शब्द मराठी के “पोव” या “पोवाडा” से जुड़ा माना जाता है जिसका अर्थ है वीरता या बहादुरी की कथा का वर्णन।
कोली
- कोली नृत्य महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों का एक अत्यंत लोकप्रिय लोकनृत्य है जिसे मुख्य रूप से मछुआरे समाज के कोली समुदाय द्वारा समूह में प्रस्तुत किया जाता है।
- यह नृत्य समुद्र, नाव, जाल और मछली पकड़ने से जुड़ी गतिविधियों का जीवंत चित्रण करते हुए कोली जीवनशैली और उनकी समुद्री संस्कृति को अभिव्यक्त करता है।
- कोली समुदाय को प्राचीन काल से “समुद्र के बेटे” के रूप में देखा जाता है क्योंकि उनका जीवन, संस्कृति, लोकगीत और रस्में समुद्र और नाविक परंपरा से गहराई से जुड़ी हैं।
- कोली नृत्य की सबसे बड़ी विशेषता इसका समुद्री दृश्यांकन है; कलाकार हाथों में छोटी पतवार या काल्पनिक चप्पू पकड़कर नाव खेने की मुद्रा बनाते हैं, मानो वे लहरों पर नाव चला रहे हों। इसी प्रकार जाल फेंकने, जाल खींचने, लहरों के साथ झूमने और मछली पकड़ने की गतियाँ लयबद्ध ढंग से दोहराई जाती हैं, जिससे पूरा नृत्य समुद्र की थिरकन जैसा प्रतीत होता है।
- कोली नृत्य को “आनंद का नृत्य” भी कहा जाता है क्योंकि इसकी गतियों, मुस्कान, ताली, हुंकार और झूमते हुए कदमों में जीवन के प्रति उत्साह और उल्लास स्पष्ट दिखाई देता है।
वाघ्या मुरली
- वाघ्या मुरली नृत्य महाराष्ट्र का एक विशिष्ट लोकनृत्य एवं धार्मिक लोकनाट्य रूप है जो भगवान खंडोबा की भक्ति, लोकविश्वास और अनुष्ठानिक परंपराओं से गहराई से जुड़ा है।
- इस नृत्य में वाघ्या (पुरुष भक्त) और मुरली (महिला भक्त) मिलकर जागरण और गोंधळ के रूप में खंडोबा की लीलाओं का गायन–नृत्य करते हैं।
- वाघ्या मुरली परंपरा का संबंध मुख्यतः महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के निकट स्थित जेजुरी के खंडोबा मंदिर से माना जाता है, जहाँ खंडोबा को भगवान शिव का क्षेत्रीय रूप मानकर पूजा जाता है। मान्यता रही कि संतान की कामना करने वाले भक्त मनौती पूरी होने पर अपने प्रथम पुत्र या पुत्री को प्रतीकात्मक रूप से खंडोबा को समर्पित करते थे; ऐसे लड़कों को “वाघ्या” और लड़कियों को “मुरली” कहा जाने लगा।
धनगारी गाजा
- धनगारी गाजा (या धनगरी गजा) महाराष्ट्र का एक अत्यंत जीवंत और लोकप्रिय लोकनृत्य है, जिसे मुख्य रूप से धनगर (गडरिया) समुदाय के लोग प्रस्तुत करते हैं।
- यह नृत्य पशुपालक जीवन, श्रम के बाद का उत्सव, और अपने कुलदेवता के प्रति भक्ति का सामूहिक सांस्कृतिक रूप माना जाता है। यह शैली विशेष रूप से सोलापुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है।
- धनगारी गाजा नृत्य का संबंध धनगर जाति से है जो परंपरागत रूप से भेड़-बकरियाँ, गाय–भैंस आदि पालने, चरागाहों में घूमने और घुमंतु जीवन जीने के लिए जानी जाती है। वर्ष भर खुले मैदानों और पहाड़ी ढलानों पर पशु चराने के बाद जब ये समुदाय अपने परिवारों के बीच लौटते हैं, तो अपने इष्टदेव की पूजा, मेलों और सामूहिक उत्सवों के अवसर पर यह नृत्य करते हैं।
- धनगारी गाजा नृत्य उनके इष्टदेव ‘बिरोबा’ या ‘बिरूआ’ के सम्मान में भी किया जाता है जिसमें देवता के जन्म, शक्ति और संरक्षण से जुड़ी गाथाएँ गाई जाती हैं।